मनुष्य का मूल प्रेम करने से शुरू होता है लेकिन अगर मनुष्य एक मनुष्य से प्रेम नहीं कर सकता तो फिर वो ईश्वर से कैसे प्रेम कर सकता है?जबकि ईश्वर को स्वीकार करने के लिए उसकी पत्थर की मूर्ति को स्वीकार करना होता है । वर्तमान में पत्थर दिल मानव पत्थरों में तो ईश्वर खोजता है लेकिन जीवंत मनुष्य में ईश्वर खोजना न वो कभी सीखा और न जाना । ईश्वर मानव भावों से निर्मित एक आस्था है फिर भी मनुष्य जीवन में एक बार ही सही स्वयं को बचाते फिरता है वास्तविक प्रेम से,करूणा से और किसी स्त्री या पुरुष के लिए समर्पित होकर मर मिटने से ।वो भय खाता है कि मर मिटे तो कहीं अपना अहं खोकर अपना वजूद न खो दे जबकि उसने नहीं महसूस हुआ कि ईश्वर के लिए पूर्ण समर्पित होने से पूर्व का रास्ता किसी मनुष्य देह के समर्पण से ही जाता है




@shri