दर्प

 दर्प की एक बड़ी चुनौती स्वयं उसकी खुद से भी रही है

दरअसल वो बड़ा अस्तित्वविहीन रहा है जिससे कहा जा सके कि उसका जन्म कैसे हुआ?एक बड़ा वर्ग इसका अधिपति रहा है आज भी है वे प्रजातियां सुलभ ! लेकिन उद्भव कहां और कैसे हुआ ये वैसे ही अज्ञात है जैसे सिंधु के सभ्यता का विनाश का कारण जानना । मनोवैज्ञानिक तो इसके विकृत रुप को मनोरोग तक कह डालते हैं वजह ये है कि हमारे साथ ये होता है कि हम घमंड और गर्व में तो रहते हैं लेकिन वजह नहीं पता होता कि हमारे पास ऐसा है क्या जिसपर इतरा रहे हैं कुल मिलाकर ये भ्रामक ही है क्योंकि यहां पता किसी को नहीं है लेकिन किए और जिए सब जा रहे हैं ....

मस्तिष्क एक तुला की तरह है जिसके एक हिस्सा बहुत बोझ है भरा हुआ है और एक हिस्सा बिल्कुल खाली है और इस का परिणाम होते हैं ये अंसुतलन जो भांति भांति मनोविकारों के जन्मदाता बनते है।अनुभविक तौर पर इगो प्रोब्लम्स से वे लोग पीड़ित अधिक होते हैं जिन्हे जिंदगी में चुनौतियां कम मिली या भाग्य के कृपा से जीते आये है , सर्वसुलभता रही ,वरना जमीनी धरातल पर सामान्य व्यक्ति का जब पाला पड़ता है तब सर्वप्रथम आती है उसमे विनम्रता और दर्प चूर चूर हो जाता है क्योंकि जीवन चलाने के लिए झुकना कम से कम व्यक्ति नहीं लेकिन जीवन के सामने उसके निर्णयों के सामने तो सहजता से ही झूकना पड़ जाता है वो पत्थर से सीधे पानी जैसा हो जाता है।हद तो तब हो जाती है जब दर्प और स्वाभिमान का भेद के सीमा रेखा हम कब लांघ जाते हैं हमें भान नहीं रहता है और स्वाभिमान का महिमा मंडन करने लगते हैं पर ये भूल जाते हैं कि दर्प और स्वाभिमान एक ही सगी बहनें हैं जन्म एक ही स्रोत से हुआ है। स्वाभिमान को जीते जीते कब दर्प को जीवन बना डालते हैं स्वयं भी जानकारी नहीं होती....।

ध्यान रहे सहज और सरल होना और सहज होने का नाटकीय रूप में जीना दोनों में ही भारी भेद है।दर्प का जीवन से हटना एक बड़ी दीर्घकालिक घटना है जिसे सिर्फ रचने वाले के रचनात्मक कार्य ही हटाते हैं धीरे धीरे और आहिस्ता आहिस्ता वरना सामान्यतः शायद ही कोई अपनी अनुवांशिक वृत्तियों को त्याग करना चाहे और इसकी हटने की प्रकिया भी इतनी सुलभ नहीं होती है वो ठीक वैसी ही होती है जैसे पत्थर पर छैनी से मार मारकर मुर्तिकार उसे गढ़ता है लेकिन अंतर ये होता है वो मुर्तिकार और छैनी तो होता है लेकिन सामने पत्थर नहीं एक इंसान का अनगढ स्वरूप होता है जो तरासे जाते वक्त कराह उठता है पीड़ा है ,अपने ही वृतियों से ,अपने ही तमस से कभी कभी वो छिटकर भागना चाहता है वो भागकर करबद्ध होकर विनती करता है मूर्तिकार से की मुझे तुम्हारे स्वरूप की मूर्ति नहीं होना मुझे किसी वणिक के तराजू का माप बना दो या बना दो मंदिरों पे पत्थर की सीढ़ियां,रूदन से विहल होकर चुनने लगता है रास्ते में पड़ा कंकड़ बनना भी क्योंकि उसे ये छैनी की मार नहीं सही जाती है लेकिन मूर्तिकार तो मूर्तिकार है वो भी पत्थरों का पारखी ठहरा उसे भा गया होता है वो अनगढ़ पत्थर!!

पीड़ा और प्रकिया साथ साथ चलते चलते एक प्रकाशित जीवन हो जाते हैं वैसे ये उनके लिए और कठिन है जिन्हे नहीं पता है कि उनके जीवन में ये क्यों हो रहा है?उनके लिए ये ईश्वर का अप्रत्यक्ष प्रेम और प्रत्यक्ष दंड श्राप है बाकि दर्पसम्राटो इस जीवन में अपना दर्प बचाकर रख सके तो बेहतर ही सही वरन शुक्र मानिएगा कि रचनाकार का कलम की नोक आप पर आके ना टिके वरना अनगढ़ पत्थर तो संवर जाता है लेकिन गढ़ी हुई मूर्ति पर छैनी चले तो वो स्वरूप ध्वंसत हो जाता है ।

ये सनद रहे💐❣️