तथाकथित मौन
मस्तिष्क सदैव युद्धरत रहा
गंवारपन और बुद्धिजीवी होने के मध्य
एक ओर वो बुद्धिजीवियों का साथ
चाहता तो दुसरी ओर गांव से
संबंध होने से गंवार होना
भाषा को हमेशा ही गवांरो ने चुना
बुद्धिजीवियों ने तो मौन को चुना
मुश्किल था बुद्धिजीवी कहलाना
क्योंकि किसी के पीड़ा पर बुद्धिजीविता
का तमगा लेना हिंसा था स्वयं से
हर बार विजयी होता अपना गंवार होना
क्योकि अन्याय होते देख अपने लिए
आगे बढ़ना मुश्किल था
मुश्किल था किसी के हिस्से की खुशियां
लेकिन नींदभर कर आंखों में ख्वाब संजोना
सत्य तो ये था कि हर चलते फिरते
जिस्मों में एक गंवार दुबकर बैठा है
जो नीतियां कहीं गयी चाहे पुरे युद्ध में
मौन रहे बुद्धिजीवी विदुर के मौन से
या रची गयी स्नातक चाणक्य के
कुटिल मौन के अभ्यंतर उसकी नीतियां
इस सबके इतर मैंने तुलसी के चुना
जिसकी नीतियां को नहीं
उसका भाषा,उसका गंवार होना
इस सबके इतर मैंने कबीर को जी सकी
जो बुद्धिजीवीता नहीं
जिसकी गंवार गालियों के माध्यम से भी
सीखा सकी जीवने के गहरे अर्थ
मैं चुनती रही भाषा और उसका गंवार होना
मैं बुद्धिजीवियों के मौन को स्वीकार न सकी
©-श्री
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