प्रेम में स्त्री ❤️


एक स्त्री मात्र हृदय नही चुराती

वो चुरा लेती है संपूर्ण पुरूष को....

उसके स््त्रीत्व का अधिपत्य हृदयपर ना हो

संपूर्ण पुरूषत्व को 

अपने अधीन कर लेता है

तभी तो बनता है सप्तपदी और सात जन्म....

पुरूष हर जन्म मे आता है स्त्री के पास
प्राप्त करने हृदय
लेकिन स्त्री के प्रेम के सान्निध्य
मे इसका ध्यान नही रहता,
रंग कर  अनुराग में
बन जाता है वो रंगरसिया....

विस्मरित हो जाता है कि वो कुछ लेने आया था
फिर वही दुहराकर
अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है
शेष कुछ नही रहता
जो अधिकारिक रूप मे उसकी संपति हो ...

पुनरावृत्ति करता है बारंबार हृदय प्राप्त करने कि
प्रयोगित करताहै अपने वीरता को,पौरूष को
आखिर स्त्री के
स्नेह के सम्मोहन के आगे वो
नतमस्तक हो जाता है
सप्तपदी के वचनो के साथ साथ
स्त्री अभिमंत्रित कर बांध लेती
है मंत्रो से...

जिन सिद्धियो को वो प्राप्त
की होती है प्रेमयज्ञ से
पुरूष के पूर्णाहुति देने के
साथ ही एक पुरूष
पुरुष के अस्तित्व मे नही शेष रहता
वो स्त्री से नामरूप से
जीवित रहता है

पुरूष के आयु का निर्धारण तक
करती है स्त्री के
मांग के सुर्ख लाल सिंदूर
मंगलसूत्र और पैरो मे उसके
नाम के पायल और बिछुए.....

तदन्तर ही फलित होता है
पुरूष के लिआयुष्यमान भव:
का आशीष
एवं स्त्री हो जाती है

  • अखण्ड सौभाग्यवती...........

सप्तपदी में ऎसे ही नहीं कहती धर्मपत्नी

यद इयं हृदयं तव

तद इयं हृदयं मम

उसे हर युग में आना पड़ता है
मेरे पास
प्राप्त करने तुम्हारा हृदय ❤️



©-श्रीऋ भार्गवी