ऐ स्त्री ....


 

ऐ स्त्री ......
तेरे गोद के ब्रह्मांड मे
कभी मन के बोझ से भारी सिर रख कोई पुरुष
अगर फफक कर रो पड़े
तो सहेज लेना ....
उसे टुटकर बिखरने के लिए
अपने गर्भ के ऊपर की जमीन को  बिना
कीमत उसके नाम
कर देना
अपने ममतामयी स्पर्श के
पाश मे उसे
कोमलता का उफान देना
कि वो पुरूष मल्लाह हो जाए
और उसके अंदर बसा समंदरो का एक टापू तुम्हारे
सामने बहने लगे......

ऐ स्त्री.....
भूल कर भी
उस पुरुष को मत टोकना ,मत हंसना
बिलखने की सहजता देना
क्योकि ये सरलता के अतिदुर्लभ दृश्य है
जो तुम्हे मिल रहे
जिसे दम घोट दिया गया है
युगो से पौरुष के दंभ
नाम पर
लेकिन तुम उसे वात्सल्यता के समागम
मे ऐसे रखना कि
वो पुरूष, पुरुष न रहे
गर्भ से निकला शिशु बन
और तुम्हारे सीने से लिपट जाएं
जिद्द करने लगे तुम्हारे ही निकट रहने की....

ऐ स्त्री
तू तब भी निस्वार्थ रहना
जब वो पुरूष शिशु से युवा होने लगें
उसे रिझाने लगे आसपास के गुजरते परिदृश्य
उसे जाने देना
तब भी तैयार करना अपने इन्ही हाथों से
जिससे तुमने पोषण दिये था
ऐसे सजा देना
कि दुनिया का वो सबसे सुंदरतम
पुरूष हो..........

व्याकुल मत होना तुम स्त्री....
तुम जगत जननी हो
तुम जगत धात्री हो....

वो.....ठहरो
जाते हुए पुरूष
इस ठिकाने का पता हमेशा स्मृति मे रखना..
क्योकि तुम इंद््र के सभा से
निर्वासित हुए एक वंचित हो
जिसे हमेशा स्नेह की
ललक होगी.....
नही आयेगा अगर तुम्हारे हिस्से
ममता तो तुम शापित
शिला हो  जाओगे

तुम्हे पता भी है ,स्त्रीत्व विहीन पुरूष
स्नेह ममता बिना व मां बने पूर्ण नही होता.......
वो एक स्त्री का हो
या हो एक पुरुष का ......







©श्रीऋ भार्गवी